हाउस वाइफ – तनिक विचार करें

स्त्री  के  कितने  रूप  ,कितनी  भूमिका,  समाज  ने  तय  की  है   जिन्हें  वह  बिना  शिकायत  निभाती  रही  है  । औरत  को  किसी  नाम  से  पुकारिए  उसका  नाम  सिर्फ  औरत  है  जिसको  पारिवारिक,  सामाजिक,  और  राजनीतिक ,स्थितियों  में  डालकर  अपनी  तरह  से  तोड़ा  मरोड़ा  जा सकता  है ।                                                                                                                 हाउसवाइफ  एक  ऐसा  सपोर्ट  सिस्टम  है  जो  हर  किसी  को  जीने  का  हौसला  देता  है ।  महिला  चाहे  घर  पर   काम  करें  या  बाहर  ,काम  तो  करती  ही  है  पर  यहां  बात  उस  महिला की  हो  रही  है  जिसे  हमारा  समाज  बेकार  समझता  है  उसकी  ना  कोई  छुट्टी  ना  कोई  वेतन,  सच  कहे  तो  कोई  हाउसवाइफ  वेतन  चाहती  भी  नहीं  है  ,पर  वह  अपनों  की  जो  सेवा  सहायता  करती  है  उसके  बदले  सम्मान  की  अपेक्षा  तो  करती  ही  है  और  यह  उसका  मानवीय हक  भी  है ।                                                                                                                  विचारणीय  तथ्य – एक  राष्ट्रीय  सर्वे  के  अनुसार  40  % ग्रामीण  और  65  %  शहरी  महिलाएं  जिनकी  उम्र  15  साल  या  उससे  ज्यादा  है  पूरी  तरह  से  घरेलू  कामों  में  लगी  रहती  हैं  और  भी  ज्यादा  चौंकाने  वाली  बात  यह  है  कि आंकड़ों  के  हिसाब  से  60  साल  से  ज्यादा  उम्र  की  एक  चौथाई  महिलाएं  ऐसी  हैं  जिनका  सबसे  ज्यादा  समय  इस आयु  में  भी  घरेलू  काम  करने  में  ही  बीतता  है । हमारे  यहां  का  रहन – सहन  और  सामाजिक  ढांचा  कुछ  इस  प्रकार  का  है  कि  घर  पर  रहने  वाली  महिलाओं  के  हिस्से  सुविधाएं  कम  है  और  सबसे  बड़ी  बात  तो  यह  है  कि  हमारे  यहां  घरेलू  कामों  का  जिम्मा  पूरी  तरह  से  हाउसवाइफ  पर  ही  होता  है  ,लेकिन  उसके  इस  रूप  को  हर  जगह  और  हर  हाल  में  अनदेखा  करने  की  कोशिश  की  जाती  है  कि  तुम  दिन  भर  घर  में  करती  ही  क्या  हो , यह  सब  सुनते – सुनते  वह  सब  के  साथ  होकर  भी  अकेली  हो  जाती  है  और  अवसाद  और  तनाव  की  शिकार  हो  जाती  है |  अपराध  बोध  से  जुड़ा  उसका  यह  भाव  अधिकतर  मामलों  में  बच्चों  की  परवरिश  या  परिवार  के  संभालने  से  ही  जुड़ा  होता  है  इसके  बावजूद  उसके  कार्यों  का  आकलन  ठीक  से  नहीं  होता  है ।                                                                       सोचने  वाली  बात  यह  है  कि  जो  हाउस  वाइफ   सारा  दिन  बच्चों  के  लिए  और  पति  के  लिए  लगी  रहती  हैं  उन्हें  गैर  कमाऊ  की  श्रेणी  में  रखना  क्या  सही  है ? | जबकि  आज  की  हाउसवाइफ  पुरुष  के  कंधे  से  कंधा  मिलाकर  अपना  सहयोग  दे  रही  हैं ।  21 वीं  सदी  को  ना  केवल  यूनेस्को  ने  बल्कि  भारत  सरकार  के सभी  बुद्धिजीवियों  ने  महिलाओं  की  शताब्दी  बताया  है ।                                                                                                                             नैतिकता  की  आवश्यकता –  सहयोगियों  को  भावनात्मक  सहयोग  व  देखभाल  देना , दोस्ती , झुक  जाना , दूसरों  के  आदेश  पर  रहना , हर  बिखरी  चीज  को  सवारना , जिम्मेदारी का अहसास तथा त्याग , किफायती  होना , महत्वकांक्षी  ना  होना , दूसरों  की  खातिर  आत्मत्याग  करना , सभी  बातों  को  सहन  कर  लेना  और  मददगार  होना  यह  सब  मिलकर  हाउसवाइफ  की  कार्य  क्षमता  बनाते  हैं । ऐसा  नहीं  है  कि  आज  की  हाउसवाइफ  जागरूक  नहीं  है । भारतीय  महिला  चाहे  वह  हाउसवाइफ  हो  या  कामकाजी  अपने  विकास  के  दौरान  जहां  वह  बहुत  ही  सामाजिक , धार्मिक, रूढ़ियों , जड़ताओं , कुप्रथाओं  और  पाखंड  से  मुक्त  हुई  है  वहीं  दूसरी  ओर  उसके  सामने  वर्तमान  परिप्रेक्ष्य  में  नई  चुनौतियों  भी  उत्पन्न हुई  है  जो  परंपरागत  कुरीतियों  से  अधिक  घातक  सिद्ध  हो  रही  हैं  जैसे –  कन्या  भ्रूण  हत्या , कुपोषण , हिंसा अपराध , बलात्कार  , घरेलू  हिंसा , महिलाओं  का  वस्तु  करण , परिवार  का  बिखरना  जैसी  अनेक  भयावह स्थितिया  सामने  खड़ी  है  साथ  ही  बहुत  से  पुरानी  परंपराएं  कुप्रथाएं  भी  आज  तक  कायम  है  जो हाउसवाइफ  सशक्तिकरण  में  अवरोधक  है  उन  प्रथाओं  का  कारण  भी  स्वयं  हाउसवाइफ  ही  हैं  बहुत  सी  हाउसवाइफ  बदलते  परिवेश  में  खुद  को  बदलना  ही  नहीं  चाहती  और  टकराव  की  स्थिति  उत्पन्न  कर  देती  हैं, इसलिए  बदलाव  बहुत  जरूरी  है ।                                                                                                 इस  प्रकार  हमारे  समाज  में हाउसवाइफ  को  किस  तरह  कमतर  करके  आंका  जाता  है  या  यूं  कहें  कि  वह  स्वयं  भी  खुद  को  कम समझती  है  जबकि  उनका  योगदान  वर्किंग  वुमन  के  मुकाबले  कम  बिल्कुल  भी  नहीं  है । 

Similar Posts

9 Comments

Leave a Reply