अच्छाई के बिना जिंदगी मुखर नहीं हो सकती
हम अक्सर अच्छाई और जिंदगी के संबंधों को लेकर कुछ इस तरह सोचने के आदी हो गए हैं कि अच्छाई जिंदगी से कोई अलग चीज है और उसे जिंदगी तक लाने में अच्छी – खासी मेहनत करनी पड़ सकती है लेकिन गौर से देखें तो ऐसा नहीं है, जिंदगी से बाहर अच्छाई की कोई सत्ता नहीं है जिंदगी के साथ या अनिवार्य चीज है जिससे हम जाने- अनजाने अपने से दूर कर देते हैं अच्छाई के बिना जिंदगी कितनी बेरंग होती है इसको तो हम सब समझते ही हैं । नेकी और अच्छाई के लिए हमें बहुत भटकने की जरूरत नहीं है ,इच्छाशक्ति की जरूरत है और खुद के लिए ईमानदारी की जरूरत है। अपने लिए अपने घर के लिए ,अपने परिवेश के लिए हम कितने ईमानदार हैं यह सवाल महत्वपूर्ण है , हमें सोचना होगा कि प्रकृति का जो परिवेश है उसमें सिर्फ हम ही नहीं रहते ढेर सारे दूसरे प्राणी भी रहते हैं उनके लिए भी जगह तय है लेकिन हम उनकी जगह का अतिक्रमण करते हैं उनके अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं यह हड़प की मानसिकता अच्छाई के लिए सबसे बड़ा कांटा है । दूसरे इंसानों के लिए हम दया दिखाकर कुछ पल या कुछ साल के लिए तो अच्छे बने रह सकते हैं लेकिन अगर सच में जिंदगी में अच्छाई चाहिए तो जियो और जीने दो पर अमल करना होगा अगर हम ईमानदार है तो । कोई भी देश अपनी अच्छाइयों को खो देने पर ही पतित होता है , अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अकाल गुरु नानक ने इस कथन को कहा था उनका मानना था कि कथनी और करनी का जो भेद है उस भेद के बीच अच्छाई जीवित नहीं रह सकती । यह सत्याचार ही है जो जिंदगी का सबसे उज्जवल रंग है अच्छाई का ,यह चमकता रंग है । हर किसी की जिंदगी में दो रास्ते आते हैं एक स्वीकार करने लायक और एक इनकार करने लायक लेकिन स्वीकार करने लायक रास्ता कौन सा है इसकी परख भी तो जरूरी है यह पर 1 दिन की बात नहीं एक दिन में नहीं आ सकती , समझ लगातार समझना पड़ेगा , ठीक वैसे ही जैसे कोई कलाकार रंगों को समझता है । आपकी सोच अगर आपके कर्म का साथ दें और उसमें समाज के कल्याण का भाव हो तो अच्छा ही रंग खिलेगा । अच्छाई के बिना जिंदगी मुखर नहीं हो सकती , अच्छाई के ढेर सारे रूप और रंग हो सकते हैं सबसे पहला तो यह है कि हम क्या बोलते हैं , बात हमारी अपनी तब तक है जब तक हम बोलते नहीं , बोलने के साथ ही वह दूसरों की हो जाती है इसलिए जरूरी है कि हम बोलने से पहले सोचें , अच्छाई का एक चेहरा हमारी बातों से भी बनता है दूसरों को चोट पहुंचाने वाली बातें क्यों बोले , निरर्थक बोलने से बचा जा सकता है सार्थक बातों की जरूरत है । संत कबीर भी कुछ ऐसा ही कहते हैं कि , साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय सार सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय ।
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