जीवन से हारे नहीं जीवन सवारे
अगर आपके पड़ोसी के घर में चोरी हो रही है और आप आराम से सो रहे हैं तो याद रखिए अगला नंबर आपका है | जाने-माने मोटीवेटर शिव खेड़ा जी के शब्द इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि वर्तमान समाज में दो घरों के बीच इतनी गहरी खाई है जितना पहले दो देशों के बीच भी शायद ही रही हो | क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि हमारे बीच ही रहते शहर से लगते परिवार के 11-11 लोग सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लेते हैं और आसपास के लोगों को सचेत होने में घंटों लग जाते हैं | परीक्षा में नंबर कम आना इतनी बड़ी हार बन जाता है कि बच्चे जिन्हे अभी जिंदगी की कई परीक्षाओं का कई चुनौतियों का सामना करना है जो उन से जूझने की बजाय फांसी के फंदे पर झूल ना ज्यादा शान समझते हैं | जरा सा भाव जरा सी चुनौतियां जरा सी नाकामी जिंदगी के उतार-चढ़ाव का हिस्सा ना लग कर जिंदगी का खात्मा करने के कारण बन जाती है, क्या आज वाकई हमें जीने मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ वर्षों पहले जारी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि पूरे देश में प्रतिवर्ष लगभग 8 लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं | जिनमें से 21 फीसदी मामले अकेले भारत में होते हैं हमारे देश में महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल इस सूची में सबसे ऊपर है जिनमें से बुंदेलखंड तो इस मामले में कुख्यात हो चुका है | हमारा देश पूरी दुनिया में इस विषय में अव्वल है | इस विषय नें समाज विज्ञानियों को गहरी चिंता में डाल दिया है और इस समस्या के समाधान के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं इन प्रयासों के ठीक उलट भारत में आत्महत्या के मामले डेढ़ फ़ीसदी की दर से लगातार बढ़ रहे हैं | वैसे तो आज भी किसी वर्ग को इन आंकड़ों से बाहर नहीं रखा जा सकता लेकिन इसमें सबसे अधिक संख्या मजदूरों की दर्ज की गई है उसके बाद नंबर आता है महिलाओं का | नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने भी कुछ अरसा पहले इस बात की पुष्टि की थी कि ऐसा करने वालों में 18 से 21 वर्ष की आयु के लोग ही ज्यादा होते हैं | क्या है इस पराजय का कारण – इस विषय में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आत्महत्या के मामलों में युवाओं की तादाद का लगातार बढ़ना एक बड़ी चिंता की वजह है | युवावस्था तो उम्र के उस पड़ाव का नाम है जब पूरी दुनिया जीत लेने का जज्बा दिलों में पलता है ऐसे में कारण चाहे जो भी हो बहुत जरूरी है कि इस बात को गंभीरता से लिया जाए और इसका समाधान तलाशा जाए | आत्महत्या के लगभग 90 फ़ीसदी मामले में लोग मनो रोग की चपेट में आ चुके होते हैं, बढ़ती प्रतिस्पर्धा ,दूसरों से तुलना, पढ़ाई या नौकरी में लगातार बढ़ती प्रतियोगिता बेहतर से बेहतरीन करने का दबाव ,प्रेम या वैवाहिक संबंधों में असफलता ,आर्थिक समस्याएं एवं अहम् का बड़ा होना या अत्यधिक संवेदनशील होना कारण कुछ भी हो सकता है | पहले के समय में मान लिया जाता था कि आत्महत्या करने वाले अधिकांश लोग किसी ना किसी रूप में असफल लोग होते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में बात तेजी से उभर कर आई है कि जिंदगी में कामयाब लोग भी चुनौतीयों की दौड़ में पिछड़ने पर आत्महत्या जैसा कदम उठाने लगे हैं | समाज शास्त्रियों का तो यहां तक कहना है कि अब यह समस्या किसी एक व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य तक सीमित न रहकर पूरे समाज के मानसिक स्वास्थ्य तक फैल चुकी है | सामूहिक प्रयास से ही समाधान – इस समस्या की जड़ अगर पूरे समाज में फैलने लगी है तो इसके समाधान के लिए भी पूरे समाज को आगे आना पड़ेगा । “हमें क्या” वाला नजरिया बदले जाने की सख्त जरूरत है जरूरी नहीं है कि हर जान पहचान और मुलाकात के पीछे कोई वजह ही छिपी हो कुछ सरोकार सिर्फ इंसान होने के नाते भी निभाए जाने चाहिए | मानवीय समाज कोई जंगल नहीं है हम और आप भी इसी समाज का हिस्सा है इसलिए जब अगली बार कोई गुमसुम नजर आए तो एक कोशिश जरूर कीजिएगा उस चेहरे पर मुस्कान लाने की ।
Ati uttam
Good
बिल्कुल, खुश रहें और दूसरों के खुशी का कारण बनें ।
सदैव खुश रहे , अच्छा लेख ।
अभिभावक के रूप में हमें भी अपने जिम्मेदारी का पालन करना होगा
Very good article
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