आधुनिकता और परिवार – विचार करें

संयुक्त  परिवार  संस्कृति  संस्कार  की  एक  पाठशाला  होते  थे  और  बच्चों  के  संपूर्ण  विकास  में  कारगर  भी l.                   सच  कितना  अपनापन  और  आत्मिक  स्नेह था  उस  दौर  में ,  तब  किसी  व्यक्ति  की  चिंता  उसकी चिंता  ना  होकर  पूरे  परिवार  की  चिंता  बन  जाती  थी  और  सहयोग  से  सब  मिलकर  उस  चिंता  को  दूर  करते थे  रिश्ते  निभाए  जाते  थे  ढोए  नहीं  जाते  नहीं  थे ।                    फिर  धीरे- धीरे  समय  ने  करवट  बदली  , बदलती  अर्थव्यवस्था  और  समय  का  सबसे  अधिक प्रभाव  पारिवारिक  व्यवस्था  पर  पड़ा  ।   वसुधैव  कुटुंबकम  का  उद्घोष  करने  वाले  देश  में  नगरीकरण  और   निजी  महत्वाकांक्षाओं  और  उपलब्धियों  की  चाहत के  चलते  अच्छी  शिक्षा  , नौकरी ,  व्यवसाय  और  बढ़ती जरूरत  की  खातिर  बच्चे  दूर  शहरों  और  विदेश  की ओर  पलायन  करने  लगे  , छोटे  होते  मकान  में  कई पीढियों  का  रहना  कठिन  हो  गया  इन  सब  का  परिणाम  हुआ  परिवार  छोटा  हो गया  ,  और  सब  स्व केंद्रित  होकर  जीना  शुरु  कर  दिए ।                                          घर  की नारी  जिसे  परिवार  की  धुरी  माना  जाता  है   और  उसे  परिवार  की  देख- देख  को  ही  परम कर्तव्य  माना  जाता  था  आज  वही  शिक्षा  से  जागरूक होकर  क्षेत्र  में  आगे  रहकर  आर्थिक  स्वतंत्रता  भी  महसूस  करने  लगी ,  नौकरी  के  साथ  घर  की जिम्मेदारियां  संयुक्त  परिवार  में  निभाना  मुश्किल  हो  गया तो इसने वहां पर में उसने स्वं  के  लिए  संयुक्त  परिवार  से  अलग  पति  के  साथ  रहने  का  विकल्प  चुन लिया  है  ,  नतीजा  वृद्धावस्थाा  मे माता- पिता  अकेले  हो गए  ,   दूर  शहरों  में  उनके  बेटे  भी  अकेले  हैं ,  इस  नए परिवेश  में  दिखावा  बढ़  रहा  है  , पारिवारिक  सौहार्द  का ग्राफ  काफी  नीचे  गिर  रहा  है  ,  दूसरों  का  उनकी  जिंदगी  में  झांकना  दखलंदाजी  लगता है  आज  कई माता- पिता  के  बच्चे  अकेले  नौकरों  के  भरोसे  रहते  हैं  इसलिए  आज  पारिवारिक  संरचना  बच्चों  की  संगत  और  संस्कार  पर  भी  गहरा  असर  डाल  रही  है ।

परिवार  का  स्वरूप  दिनों  दिन  सिकुड़ने  से पति- पत्नी  और  बच्चों  के  बीच  के  खाली  वक्त,  मनमुटाव  , झगड़ा  और  खुशियों  को जोड़ने  वाली नातेदारी  की  कड़ियां  टूट  सी  गई  है  जिससे  बहुत  कुछ टूटता   जा  रहा  है  ।  भारत  में  जहां   पिछले  एक  दशक  मे  हजार  से  ज्यादा तलाक  होता  था  अब  वह  आंकड़ा  बढ़कर  15 – 20 हजार  तक  पहुंचने  लगा  है ।

भारतीय  परिवेश  में  परिवार  के  इन्हें  समीकरणों  पर  हमें  फिर  से  सोचने   की  जरूरत  है , पत्नी , मां  , बेटे  , मां  बेटी ,  भाई – भाई  , बहन  , सास  , ससुर  , गुरु  से  सभी  में  सहयोगिता  की  शक्ति  में  कमी  हो  रही  है । भाई- भाई  को  या  पुत्र  माता -पिता  को  सहन  नहीं  करता  लेकिन  पड़ोसी  , मित्र  को  सहन  कर  लेता  है  यह प्रकृति  और  प्रवृत्ति  दोनों  ही  विचित्र  है  , घर  में  एक सीमा  तक  एक  दूसरे  को  सहन  करना  चाहिए  तभी छोटी- छोटी  बातों  पर  मनमुटाव  और  नित्य  झगड़े  नहीं होंगे  , सभी  को  बुद्धि  विवेक  से  यह  विचारने  की जरूरत  है कि पारिवारिक सुख शांति अधिक महत्वपूर्ण है या यह आधुनिकता

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