धर्म और महिलाएं
महिलाओं की शिक्षा , स्वतंत्रता , समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल हैं तो दूसरी ओर स्त्री को दूसरे दर्जे की वस्तु मानने वाले धार्मिक , सामाजिक, विधि-विधान पर प्रथा परंपराएं रीति-रिवाज और अंधविश्वास जोर- शोर से थोपे जाते रहे हैं । एक लड़की जब पैदा होती है तो कुदरती लक्षणों को अपने अंदर लेकर आती है उसे स्वतंत्रता का प्राकृतिक हक मिला होता है । सांस लेने , हंसने, रोने ,चारों तरफ देखने , दूध पीने ,जैसी प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं धीरे- धीरे वह बड़ी हो जाती है तो उससे प्राकृतिक अधिकार छीन लिए जाते हैं । उसे प्रकृति प्रदत्त अधिकारों पर समाज का गैर कानूनी अधिग्रहण शुरू हो जाता है ।उस पर धार्मिक , सामाजिक, बंदिशे , बेड़ियां डाल दी जाती है उसे कृत्रिम आवरण उढ़ा दिया जाता है , ऊपरी आडंबर थोप दिए जाते हैं ऐसे आचार विधान बनाए गए हैं जिससे महिला पर पुरुष का एकाधिकार बना रहे और वह स्वेच्छा से उसकी अधीनता स्वीकार कर ले । धर्म शास्त्रों में स्त्री को नर्क का द्वार ,पाप की गठरी कहा गया है । मनु ने स्त्री जाति को पढ़ने और सुनने से वंचित कर दिया था। उसे पिता, पति ,पुत्र और परिवार पर आश्रित रखा यह विधान धर्म द्वारा रचा गया | घर की चारदीवारी के भीतर परिवार की देखभाल और संतान पैदा करना ही उसका धर्म बताया गया । औरतों को क्या करना है क्या नहीं स्मृतियों में इसका जिक्र है । सती प्रथा से लेकर मंदिरों में देवदासी तक की अनगिनत गाथाएं हैं , यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए हुई हैं । महिला हमेशा से धर्म के कारण परतंत्र रही है उसे सदियों से अपने बारे में फैसले लेने का हक नहीं था धर्म ने औरत को बचपन में पिता उसके बाद पति और बुढ़ापे में बेटों के अधीन रहने का आदेश दिया | अब औरतें अपने फैसले खुद करने के लिए आगे बढ़ रही है कहीं -कहीं परिवार समाज से विद्रोह पर उतारू दिखती हैं आजादी के बाद औरतों को कितनी स्वतंत्रता मिली उसे मापने का कोई पैमाना नहीं है लेकिन समाज शास्त्रियों का कहना है कि लोग अभी भी घर की औरतों को केवल शिक्षा या नौकरी के लिए ही बाहर जाते देखना चाहते हैं । आज महिलाएं शिक्षा , राजनीति ,न्याय, सुरक्षा ,तकनीक, खेल ,फिल्म व्यवसाय हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही हैं यह बराबरी संविधान ने दी है वे आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रही हैं उनमें आत्मविश्वास आ रहा है परंतु महिलाओं के प्रति ज्यादातर अपराधों में दकियानूसी सोच होती है | स्वतंत्रता के समय दिल्ली के जामा मस्जिद , चांदनी चौक इलाके में अमीर मुस्लिम घरों की औरतों को बाहर जाना होता था तो 4 लोग उनके चारों तरफ पर्दा करके चलते थे अब जाकिर हुसैन कॉलेज , जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में युवतियां बुर्के के बजाय जींस टॉप में देखी जा सकती है पर ठीक उसी के पास कम्युनिटी सेंटर में खुले रेस्टोरेंट में बुर्के में लिपटी भी दिखेंगी । दरअसल महिला को राजनीति या पुरुषों ने नहीं रोका है आजादी के बाद सरकारों ने बराबरी की हक दिलाने के लिए कई योजनाएं लागू की | पुरुषों ने ही कानून बनाए कानूनों में संशोधन किए कि स्वतंत्रता के बाद कानून में महिला को हक मिले उसे शिक्षा , रोजगार , संपत्ति का अधिकार , प्रेम विवाह जैसे मामलों में समानता का कागजों पर हक है सती प्रथा उन्मूलन , विधवा विवाह , पंचायती राज में 73वें संविधान संशोधन में औरतों को १/३ आरक्षण , पिता की संपत्ति में बराबरी का हक , अंतरजातीय अंतर , धार्मिक विवाह का अधिकार जैसे कानूनों के जरिए स्त्री को बराबरी का हक दिया गया है | बदलते कानूनों में महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ है । महिलाओं पर बंदिश धर्म ने थोपी समाज के ठेकेदारों की सहायता से उनकी स्वतंत्रता पर तरह – तरह के अंकुश लगाए गए उनके लिए नियम कायदे गढ़े गए उनकी स्वतंत्रता का विरोध किया उन पर आचार संहिता लागू की , फतवे जारी किये , अग्नि परीक्षा ली गई , कहीं लव जिहाद , खाप पंचायतों के फैसले , वैलेंटाइन डे का विरोध , प्रेम विवाह का विरोध , डायन बताकर हमले , समाज की ही देन है सरकारें इन सब बातों से औरतों को बचाने की कोशिश करती रही हैं ।
स्वतंत्रता का असर इतना है कि पिछले 30 सालों में औरतें घर से निकलना शुरू हुई | आज दफ्तरों में औरतों की तादाद पुरुषों के लगभग बराबर नजर आती है शाम को ऑफिस की छुट्टी के बाद सड़कों पर बसों ट्रेनों और मेट्रो व कारों में चारों तरफ औरतें बड़ी संख्या में दिखाई दे रही हैं उनके लिए आज अलग स्कूल , कॉलेज , विश्वविद्यालय बन गए हैं उन्हें पुरुषों के साथ भी पढ़ने की पूर्ण आजादी मिली हुई है कई औरतें खुलकर समाज से बगावत पर उतर आई हैं समाज को खतरा इन्हीं औरतों से लगता है इसीलिए समाज के ठेकेदार कभी ड्रेस कोड के नियम फूटने की बात करते हैं तो कभी मंदिरों में प्रवेश से इनकार करते हैं हालांकि मंदिर में जाने से औरतों की दशा नहीं सुधर जाएगी इससे फायदा उल्टा धर्म के धंधे वालों को ही होगा। हिंदू धर्म में स्त्री व दलित समाज को समाज ने एक ही श्रेणी में रखा है दोनों के साथ सदियों से भेदभाव किया गया है आज महिलाओं को जो आजादी मिल रही है वह संविधान की वजह से मिल रही है पर धर्म की सड़ी गली मान्यताओं , पीछे की ओर ले जाने वाली परंपराओं और प्रगति में बाधक रीति – रिवाजों को जिंदा रखने वाला समाज महिलाओं की स्वतंत्रता रोक रहा है | दुख इस बात का है कि औरतें धर्म , संस्कृति की दुहाई देकर अपनी आजादी को खुद बाधित करने में आगे हैं अपनी दशा को वह भाग्य , नियति , पूर्व जन्म का दोष मानकर परतंत्रता की कोठरी में कैद रही हैं आजादी के लिए उन्हें धर्म की बेड़ियों को उतार फेंकना होगा।
अच्छा लिखा ।अब समाज में परिवर्तन दिखने लगा है ।
Very nice
Bahut khoob👌👌
Very Good
बहुत अच्छा लेख…. प्रत्येक स्त्री को स्वयं आकलन करना चाहिए कि धर्म के रूप में होने वाले पाखंड में उसने अपने आपको स्वयं कितना बाधित कर रखा है
Aapke vichar bahut acche Hain